शीतला माता पूजा: परंपरा, आस्था और आरोग्य का संगम

भारत में देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना का विशेष महत्व है। इन्हीं में से एक हैं शीतला माता, जिन्हें रोगों से मुक्ति और आरोग्य की देवी माना जाता है। विशेष रूप से शीतला माता पूजा का आयोजन चैत्र महीने की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है। इस दिन को शीतला अष्टमी या बसोड़ा पर्व भी कहा जाता है। उत्तर भारत, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों में यह पर्व बड़े श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है।


शीतला माता का महत्व

शीतला माता को चेचक, खसरा और अन्य संक्रामक रोगों से रक्षा करने वाली देवी के रूप में पूजा जाता है। लोकमान्यता है कि माता के आशीर्वाद से घर-परिवार में स्वास्थ्य, सुख और समृद्धि बनी रहती है। शीतला माता के स्वरूप को शांत, शीतल और करुणामयी माना जाता है। उनके हाथ में झाड़ू, कलश, नीम की पत्तियां और सूप रहता है, जो बुरे रोगों को दूर भगाने का प्रतीक हैं।


पूजन विधि

  • एक दिन पहले घर की महिलाएं बिना आग जलाए भोजन बनाती हैं, जिसे ‘बसोड़ा’ कहा जाता है।
  • अष्टमी तिथि की सुबह महिलाएं सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करती हैं और शीतला माता की प्रतिमा या चित्र पर जल, दूध और गंगाजल से स्नान कराती हैं।
  • माता को हल्दी, रोली, चावल, नीम की पत्तियां, गुड़, दही और बासोड़ा का भोजन अर्पित किया जाता है।
  • व्रत रखने वाली महिलाएं दिनभर उपवास करती हैं और ठंडा भोजन ही ग्रहण करती हैं।
  • इस दिन आग का प्रयोग नहीं किया जाता, जिससे शरीर में ठंडक बनी रहे और रोगों से बचाव हो सके।

लोक परंपराएं और मान्यताएं

  • गांवों और कस्बों में शीतला माता के मंदिरों में विशेष मेले और भजन-कीर्तन का आयोजन होता है।
  • नीम के पेड़ की पूजा करना भी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह औषधीय गुणों से भरपूर होता है और संक्रमण से बचाव करता है।
  • माना जाता है कि जो परिवार इस व्रत को नियमपूर्वक करता है, उनके घर में कभी भी संक्रामक रोग नहीं फैलते।

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