वह दिन गुम हो गए जब बच्चों को साल भर पढ़ाई के पश्चात गर्मियों की छुट्टी का इंतजार रहता था, पूरा परिवार 10 महीनों की पढ़ाई में बच्चे का शैक्षणिक स्तर उच्च करने में सहायक था,और 2 महीने की गर्मी की छुट्टियों में नाना-नानी ,दादा-दादी से किस्से,सभी भाई बहन एवं संयुक्त परिवार के बच्चों का आपस में मिलना मिलाना, खेलना, झूलना, रेत के घर बनाना, ड्राइंग बनाना, पतंग उड़ाना ,गुल्ली डंडा ,सितोलिया खेलना।, इन सभी क्रियाकलापों से बच्चों का मानसिक और बौद्धिक विकास तथा संयुक्त परिवार की परंपरा चली आ रही है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस पर ग्रहण सा लग गया है और अभिभावक भी अपने बच्चों को कंपटीशन में आगे बढ़ाने की होड़ में इतना झोंक देते हैं कि उनका बचपन ही निराधार हो जाता है और वह कुछ ही वर्षों में मानसिक बीमारियों एवं अकेलापन महसूस कर एक निर्जीव जिंदगी जीने को मजबूर हो जाते हैं ।आज भी उच्च शिक्षा क्षेत्र में मई और जून मैं अवकाश रहता है।लेकिन स्कूली बच्चों के स्कूल इस गर्मी मैं चलना क्या तर्क विहीन नही है।
अभिभावक मजबूरन अपने बच्चो को भीषण गर्मी,चिलचिलाती धूप स्कूल भेजने को विवश है साथ ही लू लगना,चक्कर आना,डिहाइड्रेशन से होने बीमारियों से परेशान है।
अक्सर देखा गया है के संयुक्त परिवार का टूटना और नई शैली की जीवन चर्या भी इन परिणामों के लिए घातक सिद्ध हुआ है।
मैं आपके के माध्यम से जन जन तक यह बात पहुंचना चाहता हूं की गर्मियों की छुट्टियों में जो बच्चों का कायाकल्प और विकास होता है ,उसके लिए किसी क्लास की जरूरत नहीं होती, यह सब परिवार और समाज की देन होती है ।अतः आप सभी इस बात को पुरजोर तरीके से उठाएं और बचपन छीनने के प्रयासों से अपने बच्चों को दूर करें ,उन्हें खूब समय दें प्यार करें और उनका जीवन सफलता की ओर बढ़े ।
,बच्चो की प्रथम पाठशाला घर परिवार ही होता है।मनोवैज्ञानिक परिवेश में इसके सटीक उदाहरण मिलते है।
नक्षत्र तलेसरा
सामाजिक कार्यकर्ता
उदयपुर