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महाराणा प्रताप स्वाभिमान बनकर हमारी रक्त शिराओं में जीवित रह गए तो काल भी उनका बाल बांका नहीं कर सकता

शौर्य क्या है? राष्ट्र प्रेम किसे कहते हैं? त्याग और बलिदान की पराकाष्ठा क्या है? अगर आपको भी इन प्रश्नों के उत्तर जानने हों तो जापान के समुराई डिस्ट्रिक्ट और स्कॉटलैंड के वाॅर म्यूजियम जाने की जरूरत नहीं है। बस राजस्थान चले जाइए और माथे से लगा लीजिएगा इस दिव्य धरा की पुण्य- धूल को, जिसने बप्पा रावल, पृथ्वीराज चौहान और महाराणा प्रताप जैसे ‘सिंहरत्न’ जन्मे हैं। यह वही पावन धरा है, जिसने पूरी दुनिया को न सिर्फ स्वाधीन चेतना का सही अर्थ बताया बल्कि अपने यशस्वी ‘सिंहरत्नों’ के रक्त-चंदन की कीमत पर इस स्वाधीनता को जी कर भी दिखाया।


महान व्यक्तियों का निधन एक बार नहीं दो बार होता है। पहली बार जब वे प्राण त्याग देते हैं और दूसरी बार जब हम उनके यशस्वी जीवन से सीखना छोड़ देते हैं। महाराणा प्रताप ने एक बार तो यह नश्वर संसार त्याग दिया, लेकिन यदि वे स्वाभिमान बनकर हमारी रक्त शिराओं में जीवित रह गए तो काल भी राणा का बाल बांका नहीं कर सकता। बात वर्ष 1568 की है, मुगल बादशाह अकबर ने मेवाड़ की स्वाधीनता को चुनौती दे दी और चित्तौड़ दुर्ग पर हमला कर दिया। अचानक किए गए इस हमले में लगभग 30,000 निरपराध मेवाड़ी नागरिक मारे गए। सैनिकों और सामंतों का वीरगति प्राप्त करना तो मेवाड़ की मर्यादा है लेकिन निर्दोष प्रजा का रक्तपात महाराणा से देखा नहीं गया। वे तड़प उठे, ‘हमने तो कभी किसी की जमीन पर अतिक्रमण नहीं किया, हम तो अपनी जमीनों पर हल चलाकर संतुष्ट थे, फिर हमारी मातृभूमि पर यह हमला क्यों।’ लेकिन अकबर अब भी शांत नहीं था। उसने महाराणा के पास जलाल खान, मानसिंह, भगवानदास और टोडरमल जैसे अपने विश्वासपात्रों द्वारा कई संधि प्रस्ताव भेजे। या यू कह लें कि अपनी अधीनता के प्रस्ताव भेजे, लेकिन सब के सब विफल होकर लौटे। महाराणा का एक ही ध्येय वाक्य था- ‘हम स्वाधीन थे, स्वाधीन हैं और सदैव स्वाधीन रहेंगे, इस लड़ाई का आरम्भ अकबर ने किया है लेकिन अंत हम करेंगे।’ उन्होंने भीष्म प्रतिज्ञा ले ली- ‘जब तक हम मुगलों से अपना चित्तौड़ वापस नहीं ले लेते, न कोई राग-रंग होगा, न कोई उत्सव होगा और व्यक्तिगत मैं, अभी इसी क्षण से सभी सुख-सुविधाओं का, महलों-आभूषणों और सोने-चांदी के बर्तनों का सर्वथा त्याग करता हूँ।’


महाराणा प्रताप चाहते तो अकबर की अधीनता स्वीकार कर सकते थे। उन्हें भी आगरा के दरबार में मनसबदार बना लिया जाता। लेकिन ये त्याग क्यों? ये वन-वन भटकना क्यों? क्योंकि महाराणा जानते थे, ये वही राष्ट्र गौरव है जिसकी स्थापना करने के लिए ऋग्वैदिक महाराज भरत ने ‘दशराज्ञ युद्ध’ किया था और आचार्य चाणक्य इसी राष्ट्र गौरव को स्थापित करने के लिए दर-दर भटके थे।

मनोज मुन्शीर
कवि एवं गीतकार

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